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३३. सल्लेखना सूत्र सल्लेखना सुखद है सुख है सुधा है, जो अंतरंग बहिरंग तया द्विधा है । माधा, कषाय क्रमशः कृश ही कगना, है दूसरी बिन व्यथा तन को सुखाना ।:५७४॥ काषायिकी परिणती सहसा हटाते, पाहार अल्प कर लें क्रमशः घटाते, सल्लेखना व्रत सुधारक रुग्न हों वे, तो पूर्ण प्रश्न तज दें, अति अल्प सोवें ॥५७५॥ एकान्त प्रासुक धरा, तृण की चटाई, सन्यस्त के मसण संस्तर ये न भाई। प्रादर्श तुल्य जिसका मन हो उजाला, प्रात्मा हि संस्तर रहा उसका निहाला ॥५७६।।
हाला तथा कुपित नाग कराल काला, या भूत, यंत्र, विष निर्मित वाण भाला। होते अनिष्ट उतने न प्रमादियों के, निम्नोक्त भाव जितने शठ साधुनों के ।।५७७।। सल्लेखना समय में तजते न मायामिथ्या निदान त्रय को मन में जमाया । वे साधु प्राशु नहिं दुर्लभ बोधि पाते, पाते अनन्त दुख ही भव को बढ़ाते । ५७८।। मायादि शल्य त्रय ही भव वक्ष मूल, काटें उसे मुनि सुधी अभिमान भूल । ऐसे मुनीश पद में नतमाथ होऊँ, पाऊं पवित्र पद को शिवनाथ होऊँ ।५७९।।