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भोगाभिलाप समवेत कुकृष्णलश्या, हो मृत्यु के समय में जिसको जिनेगा। मिथ्यात्व कर्दम फंसा उस जीव को ही, हो वोधि दुर्लभतया, नज मोह मोही । ॥५८०॥
प्राणान्त के समय में गुचि शुक्नलेश्या, जो धारता, तज नितान्त दुरन्त क्लेशा । सम्यक्त्व में निरत नित्य, निदान त्यागी, पाना वही सहज वोधि बना विरागी ।।५८ १।।
मदवोधि की यदि तुम्हें चिर कामना हो, ज्ञानादि की मतत सादर माधना हो। अभ्याम रत्नत्रय का करता, उसी को, अाराधना वरण है करती मुधी को ।।५८२।।
ज्यों मीग्वता प्रथम, राजकुमार नानाविद्या कला असिगदादिक को चलाना । पश्चात् वही कुशलता बल योग्य पाता, तो धीर जीत रिपु को, जय लूट लाता ॥५८३।।
अभ्यास भूरि करता शुभ ध्यान का है, लेता सदैव यदि माध्यम माम्य का है । तो माधु का सहज हो मन गान्न जाता, प्राणान्त के समय ध्यान नितान्त पाता ।।५८४॥
घ्यायो निजात्म नित ही निज को निहारो, अन्यत्र, छोड़ निज को, न करो विहारो। संबंध मोक्ष पथ मे अविलम्ब जोड़ो, तो प्राप को नमन हो मम ये करोड़ों ॥५८५।।
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