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साधू करे न मृति जीवन की चिकित्सा, ना पारलौकिक न लौकिक भोगलिप्सा । सल्लेखना समय में बस साम्य धारें, संसार का अशुभ ही फल क्यों विचारें ।। ५८६ ॥
लेना निजाश्रय सुनिश्चित
मोक्ष दाता,
होता पराश्रय दुरन्त श्रशान्ति धाता । शुद्धात्म में इसलिए रुचि हो तुम्हारी, देहादि में रुचि ही शिव सौम्यकारी || ५८७ ॥
( द्वितीय खण्ड समाप्त )
दोहा
मोक्षमार्ग" पर नित चलो दुख मिट, मुग्व मिज जाय । परम सुगंधित ज्ञान की मृदुल कली खिल जाय || २ ||
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