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तत्त्व दर्शन, ततीय खण्ड
३४. तत्त्व सूत्र अल्पज मूढ़ जन ही भजते अविद्या, होने दुग्वी, नहिं सुखी तजते सुविद्या । हो लुप्त गुप्त भव में बहुवार तातें, कल्लोल ज्यों उपजते मर में ममाते ॥५८८।। रागादि भाव भर को अघ पाश माने, वित्तादि वैभव महा दुःख खान जाने । प्रो मत्य तथ्य समझे, जग प्राणियों में, मैत्री रखें, वुध सदैव चराचरों में ॥५८९॥ जो "शुद्धता" परम "द्रव्यम्वभाव", स्थाई, है 'पारमार्थ" "अपरापर ध्येय' भाई । प्रो वस्तु तत्त्व, सुन ये सब शब्द प्यारे, हैं भिन्न-भिन्न पर आशय एक धारे ॥५९०।। होते पदार्थ नव जीव अजीव न्यारा, है पुण्य पाप विधि प्रास्रव बंध खारा । पाराध्य हैं सुखद संवर निर्जरा हैं, प्रादेय हैं परम मोक्ष यही खरा है ॥५९१।। है जीव, शाश्वत अनादि अनन्त ज्ञाता, भोक्ता तथा स्वयम की विधि के विधाता । स्वामी सचेतन तभी तन से निराला, प्यारा प्ररूप उपयोगमयी निहाला ॥५९२॥ भाई कभी अहित से डरता नहीं है, उद्योग भी स्वहित का करता नहीं है। जो बोध, दुःख सुख का रखता नहीं है, हैं मानते मुनि, मजीव उसे सही है ॥५९३।।
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