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क्या धीर, कापुरुष, कायर क्या बिचारा, हो काल का कवल लोक नितान्त सारा । है मृत्यु का यह नियोग, नहीं टलेगा,
तो धैर्य
धार मरना, शिव जो मिलेगा ।। ५६९ ।।
प्रो एक ही मरण है मुनि पण्डितों का, है प्राशु नाश करता शतशः भवों का । ऐसा प्रत: मरण हो जिससे तुम्हारा, जो बार-बार मरना, मर जाय सारा ।। ५७० ।।
पाण्डित्य पूर्ण मृति, पण्डित साधु पाता, निर्भ्रान्त हो अभय हो भय को हटाता । तो एक साथ मरणोदधिपूर्ण पीता, मृत्युंजयी बन तभी चिरकाल जीता ।। ५७१।।
को भी,
वे साधु पाश समझे लघु दोष हो दोष ताकि न चले रख होश को भी । सद्धर्म और सघने तन को सँभालें, हो जीर्ण शीर्ण तन, त्याग स्वगीत गा लें ।। ५७२ ।।
दुर्वार रोग तन में न जरा घिरी हो, बाधा पवित्र व्रत में नहि मा परी हो । तो देह त्याग न करो, फिर भी करोगे,
साधुत्व त्याग करके, भव में फिरोगे ।। ५७३ ।।
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