________________
होते विनप्ट व्रत हो जिम देश में ही, जाप्रो वहाँ मत कभी म्वप्न में भी। देगावकागिक वही ऋपि देगना है, धागे उमे विनगती चिर वेदना है ॥३२०॥ है. व्यर्थ कार्य करना हि अनर्थ दण्ड, है. चार भेद इसके अघाव भ्रकण्ड । हिमोपदेश, अति हिमक शस्त्र देना, दुर्ध्यान यान चढना, नित मन होना । होना मदुर इनमे बहु कर्म खोना, प्रानथं दण्ड विग्नी नुम शीघ्र लो ना ! ॥३२१।। प्रत्यल्प बन्धन आवश्यक कार्य में हो, अत्यन्त वन्ध अनवश्यक कार्य मे हो। कालादि क्यों कि इक में सहयोगी होते, पं अन्य में जब अपेक्षित वे न होते ।।३२२।। ज्यादा वको मत रखो अघ शस्त्र को भी, तोड़ो न भोग परिमाण बनो न लोभी। भद्दे कभी वचन भी हेमते न बोलो ॥ ना प्रग व्यंग करने दृग मेच बोलो ।।३२३।। है संविभाग अतिथि व्रत मोक्षदाता, भोगोपभोग परिमाण मुखी बनाता । शुद्धात्म सामयिक प्रोपध मे दिखाता यों चार प्रेक्ष्यवत है यह छन्द गाता ॥३२४।। ना कन्द मूल फल फूल पलादि खायो । रे ! म्वप्न में नक इन्हें मन में न लायो । प्रो क्रूर कार्य न करो, न कभी करामो माजीविका वन हिसक ही चलायो । यों कार्य का प्रशन का परिमाण बांधो, भोगोपभोग परिमाण सहर्ष साधो ॥३२५॥