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उत्कृप्ट, सामयिक से गृह धर्म भाता, मावद्यकर्म जिससे कि विराम पाता। यों जान मान बुध हैं अघ त्याग देते, प्रात्मार्थ मामयिक साधन साध लेते ।।३२६।। मागार मामयिक में मन ज्यों लगाता, मच्चे मुधी श्रमण के सम साम्य पाता। हे भव्य सामयिक को अतएव धारो, भाई किसी तरह मे निज को निहारो॥३२७॥
या जाय मामयिक में यदि अन्य चिता. तो आध्यान बनता दुख दे तुरन्ता । निम्सार सामयिक हो उसका नितान्त, समार हो फिर भला किस भांति मांत ?॥३२८।।
मंस्कार है न तन का न कुगीलता है, प्रारम्भ ना प्रशन प्रोषध में तथा है। लो पूर्ण त्याग इनका इक देश या लो, घारी मुसामायिक, प्रोषध पूर्ण' पालो ।।३२९॥ दो शुद्ध अन्न यति को समयानुकल,' देशानुकूल, प्रतिकूल कभी न भूल । तो संविभाग अतिथिवत प्रो बनेगा, र ! स्वर्ग मोक्ष क्रमवार अवश्य देगा ॥३३०॥ पाहार और अभय प्रौषध और शास्त्र, ये चार दान जग में सुख पूर-पात्र । दातव्य हैं अतिथि के अनुमार चागें, सागार शास्त्र कहता, धन को बिसारो ॥३३॥ १ जो पूर्ण प्रोषध करता है वह नियम से माषिक करे । २ समय (भागम) के अनुकूम और समय (काल) के अनुकूल ।
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