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देते हुए श्रय परस्पर में मिले हैं, ये सर्व द्रव्य पय गक्कर से घुले हैं। शोभे तथापि अपने-अपने गुणों से, छोड़े नहीं निज स्वभाव युगों-युगों से ॥६३०॥
है स्पर्श, रूप, रस, गंध विहीन स्थाई, है खण्ड-खण्ड नहिं पूर्ण अखण्ड भाई । है. लोक पूर्ण मुविगाल असंख्य देशी, धर्मास्तिकाय वह है मुन तू हिलेपी ॥६३१।।
त्यों धर्म जीव जड़ की गति में सहाई, ज्यों मीन के गमन में जल होय भाई । श्रीदाग्य भाव धरता नहिं प्रेरणा है, धर्मास्ति काय यह है जिन देशना है।६३२।।
धर्मास्तिकाय ग्वद ना चलना चलाता, पं प्राणि पुद्गल चले, गति है दिलाता । होता न प्ररक निमित्त तथापि भाई, च्यों रेल के गमन मे पटरी महाई ॥६३३।।
है धर्म द्रव्य उम भांनि अधर्म द्रव्य, कोई त्रिया न करता मुन भद्र ! भव्य ! प्रौदाम्य भाव धरती-सम धार लेता, ज्यों प्राणि पुद्गल स्के स्थितिदान देता ।।६३४।।
प्राकाश व्यापक अचेतन भावधाता, होता पदार्थ दल का अवगाहदाता । भाई अमूर्त नभ के फिर भेद दो हैं, है एक लोक, इक दीर्घ अलोक सो है ।।६३५।।
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