________________
३५. द्रव्य सूत्र ये जीव, गुद्गल, रव, धर्म, अधर्म काल, होते जहाँ समझ लोक उसे विशाल । पालोक से सकल लोक प्रलोक देखा, यों "वीर ने" सदुपदेश दिया सुरेखा ॥६२४।। आकाश पुद्गल अधर्म व धर्म, काल, चैतन्य से विकल हैं सुन भव्य बाल । होते प्रतः सब अजीव सदीव भाई, लो जीव में उजल चेतनता सुहाई ॥६२५।। ये पांच द्रव्य, नभ धर्म अधर्म, काल, प्रो जीव शाश्वत प्रमूर्तिक हैं निहाल । है मूर्त पुद्गल सदा सब में निराला, है जीव चेतन निकेतन बोधशाला ॥६२६॥
ये जीव पुद्गल जु सक्रिय द्रव्य दो हैं, तो शेष चार सव निष्क्रिय द्रव्य जो हैं । कर्माभिभूत-जड़ पुद्गल से क्रियावान्, है जीव, कालवा पुद्गल है क्रियावान् ॥६२७।। है एक एक नभ धर्म, अधर्म तीनों, तो शेष शाश्वत अनन्त अनन्त तीनों । हैं वस्तुत. सब स्वतन्त्र स्वलीन होते, ऐसा जिनेश कहते वमु कर्म खोने ॥६२८।। है धर्म प्रो वह अधर्म त्रिलोक व्यापी, आकाश तो सकल लोक अलोक व्यापी । है मर्त्य लोक भर में व्यवहार काल, सर्वज्ञ के वचन हैं मुन भव्य वाल !॥६२९॥
[ १२१ ]