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माता यती विचरता, उठ बैठ, जाता, हो सावधान तन को निशि में सुलाता। पो, बोलता, प्रशन एषण साथ पाता, तो पाप कर्म उसके नहि पास आता ॥३९॥
(मा) समिति हो मार्ग प्रासुक, न जीव विराधना हो, जो चार हाथ पथ पूर्ण निहारना हो। ले स्वीय कार्य कुछ 4 दिन में चलोगे, इर्यामयी समिति को तब पा सकोगे ॥३९६।। संसार के विषय में मन ना लगाना, स्वाध्याय पंच विध ना करना कराना। एकाग्र चित्त करके चलना जभी हो, ईर्या सही समिति है पलती तभी प्रो ।।३९७।। हों जा रहे पशु यदा जल भोज पाने, जाम्रो न सन्निकट भी उनके सयाने । हे साधु ! ताकि तुम से भय वे न पावें, जो यत्र तत्र भय से नहिं भाग जावे ॥३९८।। प्रात्मार्थ या निजपरायं परार्थ साधु, निम्सार भाषण करे न, स्वधर्म म्वादु । बोले नहीं वचन हिंसक मर्म-भेदी, भापामयी समिति पालक प्रात्म-वेदी ॥३९९
बोलो न कर्ण कटु निन्द्य कठोर भाषा, पावे न ताकि जग जीव कदापि त्रासा । हो पाप बन्ध वह सत्य कभी न वोलो, घोलो सुधा न विष में, निज नेत्र खोलो ।४००।
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