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हो एक नेत्र नर को कहना न काना, और चोर को कुटिल चोर नहीं बताना । या रुग्ण को तुम न रुग्ण कभी कहो रे । ना! ना! नपुंसक नपुसक को कहो रे ॥४०१॥
साधू करे न परनिंदन प्रात्म-शंसा, बोले न हास्य, कटु-कर्कश-पूर्ण भाषा । स्वामी ! करे न विकथा, मितमिष्ट बोले, भाषामयी समिति में नित ले हिलोरे ।।४०२।।
हो स्पष्ट हो विषद संशय नाशिनी हो, हो श्राव्य भी सहज हो सुख कारिणी हो । माधुर्य - पूर्ण मित मार्दव-मार्थ-भाषा बोले महामुनि, मिले जिममे प्रकाशा ।।४०३।।
जो चाहता न फल दुर्लभ भव्य दाता, माधु अयाचक यहाँ विरला दिखाता । दोनों नितान्त द्रुत ही निज धाम जातं, विश्रान्त हो महज में सुख शान्ति पाते ।। ४०४।। उत्पादना-प्रशन-उद्गम दोप हीनपावाम अन्न शयनादिक ले, स्वलीन । वे एपणा ममिति साधक माधु प्यारे, हो कोटिगः नमन ये उनको हमारे ।।४०५।।
प्रास्वाद प्राप्त करने वन कान्नि पाने, लेते नही अशन जीवन को बढ़ाने । पै माधु ध्यान ता संयम बाध पाने, लेते अतः अगन अल्प अये ! मयाने ॥४०६।।
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