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७ मिथ्यात्व सूत्र
संमोह से भ्रमित है मन मत मेरा, है दीखता सुख नहीं, परितः अंधेरा । स्वामी रुका न अबलौं गति चार फेरा, मेरा अतः नहि हुवा शिव में बसेरा ।। ६७ ।। मिथ्यात्व के उदय से मति भ्रष्ट होती, ना धर्म कर्म रुचता, मिट जाय ज्योति । पीयूष भी परम-पावन-पेय-प्याला, अच्छा लगे न ज्वर में वन जाय हाला ।। ६८ ॥ मिथ्यात्व में भ्रमित पीकर मोह-प्याला, ज्वालामुखी तरह तीव्र कषाय वाला। माने न चेतन अचेतन को जुदा जो, होता नितान्त वहिरातम है मुधा ओ ।। ६९ ।। तत्वानुकूल यदि जो चलता नहीं है, मिथ्यात्व चीज इससे बढ़ कोनमी है। कर्तव्यमूढ़, पर को वह हैं बनाता, मिथ्यात्व को सघन रूप तभी दिलाता ।। ६० ।।
वयानुवाद