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मामान्य में करम एक, वही द्विधा है, हैं द्रव्य कर्म जड़, चेतन मे जुदा है। जो कर्म गक्ति अथवा रति-रोप-भाव, है भावकर्म जिससे कर लो वचाव ।। ६२ ।। शुद्धोपयोगमय प्रातम को निहारें, वे माषु इन्द्रियजयी मन मार डारें। ना कर्म रेणु उनपे चिपके कदापि, ना देह धारण करें फिर अपापी ।। ६३ ।। ना ज्ञान-प्रावरण से मब जानना हो, ना दर्शनावरण से सब देखना हो। है वेदनीय मुख दुःख हमें दिलाता, है मोहनीय उलटा जगको दिखाता ॥ ६ ।। ना प्रायु के उदय मे, तन-जेल छुटे, है नाम कर्म रचता, बहुरूप झूठे । है उच्च-नीच-पददायक गोत्र कर्म, तो अन्ताय वश ना बनता मुकर्म ।। ६५ ।
संक्षेप से समझ लो तुम प्रष्ट कर्म, सद्धर्म से मब सधे शिव-शान्ति शर्म । होती इन्ही सम सदा वमु कर्म चाल, कर्मानुमार समझो, पट द्वारपाल । मो खड्ग, मद्य, लि, मौलिक चित्रकार, है कुम्भकार क्रमशः वमु कोषपाल ।। ६६ ।
समणमुत्तं