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जो भी जहाँ जब जभी जिस भांति भाता, विज्ञान में तब तभी उस भांति पाता। जो अन्यथा समझता करता बताता, कुज्ञान ही वह सदा सबको सताता ।। ५६ ॥ रागादि भाव करता जब जीव जैसे, तो कर्म बन्धन बिना बच जाय कैसे ? । भाई ! शुभाशुभ विभाव कुकर्म पाते, हैं जीव संग बंधते, तब वे सताते ।। ५७ ॥ जो काय से वचन से मद मत्त होता, लक्ष्मी धनार्थ निज जीवन पूर्ण खोता। त्यों राग रोष वश है वसु कर्म पाता, ज्यों सर्प, जो कि द्विमुखी, मृण नित्य खाता ॥ ५८ ॥ माता पिता सुत सुतादिक माथ देते, अापत्ति में न सब वे दुख वॉट लेते । जो भोगता करम को करता अकेला,
औचित्य कर्म बनता उसका मुचेला ।। ५९ ।। है बन्ध के समय जीव स्वतन्त्र होते, हो कर्म के उदय में परतन्त्र रोते । जैसे मनुष्य तरु पे चढ़ते अनूठे, पानी गिरा, गिर गये जब हाथ छुटे ।। ६० ॥ हो जीव को सवल कर्म कभी सताता, तो कर्म को महज जीव कभी दबाता। देता धनी धन अरे! जब निर्धनी को, होता बली, ऋण ऋणी जब दे धनी को ।। ६१ ॥
पचानुवाद