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८ राग परिहार सूत्र है कर्म के विषम बीज सराग रोष, समोह मे करम हो बहु दोष कोष । तो कर्म से जनन मृत्यु तथा जरा हो ये दुःख मूल, इनकी कब निर्जरा हो ? ।। ७१ ।। हो क्रूर, शर, मशहूर, जकर बैरी, हानी तथापि उममे उतनी न तेरी। ये राग रोष तुझको जितनी व्यथा देंकोई न दें, अब इन्हें दुख दे मिटा दे ॥ ७२ ।। मसार मागर अमार अपार खारा, ससारि को सुख यहाँ न मिला लगारा । प्राप्तव्य है परम पावन मोक्ष प्याग, ना जन्म मृत्यु जिसमें मुख का न पारा ।। ७३ ।। चाहो सुनिश्चय भवोदधि पार जाना, वाहो नहीं यदि यहां अब दुःख पाना । घोग्वा न दो म्वयम को टल जाय मौका, वैठो मुशीघ्र तप-संयम-रूप नौका ।। ७४ ।। सम्यक्त्वरूप गुण को सहसा मिटाते, चारित्र रूप पथ मे बुध को डिगाते । ये पाप ताप भय है रति राग रोष, हो जा सुदूर इन से, मिल जाय तोष ।। ७५ ।। भोगाभिलाप वश ही बस भोगियों को, होता असह्य दुख है सुर-मानवों को। ना साधु मानसिक कायिक दुःख पाते, वे वीतराग बन जीवन है बिताते ।। ७६ ॥
समणसुतं