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वैराग्य भाव जगता जिस भाव से है, श्रो कार्य प्रार्य करते, अविलम्ब मे है। जो हैं विरक्त तन से भव पार जाते, आसक्त भोग तन में भव को बढ़ाते ।। ७७ ।।
पं न पदार्थ सारे,
है राग रोष दुख, वे बार बार मन में बुध यों विचारे । नृष्णा अतः विषय को पड़ मद जाती, जाती विमोह ममता, ममता सुहाती ॥ ७८ ॥
से निराला,
दृष्टिवाला ।
मैं शुद्ध चेतन प्रचेतन ऐसा सदैव कहता सम रे! देह नेह करना प्रति छोड़ो उसे तुम यही गुरु का बताना ।। ७९ ।।
दुःख पाना,
मोक्षार्थ ही दमन हो सब इन्द्रियों का, वैराग्य से शमन क्रोध कषायियों का । हो कर्म प्रागमन -द्वार नितान्त वन्द, गद्धात्म को नमन हो नहि कर्म बन्ध ॥ ८० ॥ !
ज्यों शोभता जलज जो जलमे निराला, त्यों वीतराग मुनि भी तन मे खुशाला । होता विरक्त भव में रहता यही है, रंगीन में न रचता पचता नहीं है ॥ ८१ ॥
पद्यानुवाद
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