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है पाप जो अशुभ भाव ही तुम्हारा, है पुण्य सौम्य शुभभाव सभी विकारा है निर्विकार निजभाव नितान्त प्यारा, हो कर्म नष्ट जिससे सुख शान्तिधारा ॥१९८।।
जो पुण्य का चयन ही करता रहा है, संसार को बस अवश्य बढ़ा रहा है। हो पुण्य से मुगति पं भव ना मिटेगा, हो प ण्य भी गलित तो शिव जो मिनेगा ॥१९९॥
मोही कहे कि शुभभाव सुशील प्यारा, खोटा बुरा अशुभभाव कुशील खारा, संसार के जलधि में जब जो गिराता, कैमे सुशील शुभ भाव, मुझे न भाता ॥२००।।
दो बेड़ियां, कनक की एक लोह की है, ज्यों एक मी पम्प को कस वांधती है । हो कर्म भी अशुभ या शुभ क्यों न होवें, त्यों वाँध ते नियम से जड़ जीव को वे ॥२०१॥
दोनों शुभाशुभ कुशील, कुशील त्यागो मंसर्ग राग इन का तज नित्य जागो, संसर्ग राग दनका यदि जो रखेगा स्वाधीनता विनगती दुग्व ही महंगा । २०२।।
अच्छा व्रतादिक तया मुर मौम्य पाना, स्वच्छन्दता अति वुरी फिर श्वभ्र जाना। अत्यन्त अन्तर ब्रताव्रत में रहा है छाया-सुधूप द्वय में जितना रहा है २०३।।
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