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जा बैठना शयन भी करना तथापि, चेष्टा न व्यर्थ तन की करना कदापि । व्युत्मर्गरूप तप है, विधि को तपाता, पीताभ हेम सम प्रातम को बनाता ।।४८०॥
कायोतसर्ग तप मे मिटती व्यथायें, हो ध्यान चित्त स्थिर द्वादश भावनायें । काया निगेग बनती मति जाड्य जाती, मंत्राम मौख्य सहने उर शक्ति पाती ।।४८११!
लोकेशनार्थ तपते उन साधुनों का, ना शुद्ध हो तप महाकुलधारियों का। गमा अतः न अपने तप की करी रे ! जावे न अन्य जन यों तप धार लो रे ।।४८२।। स्वामी समाहत विबोध मुवात में है, उदीप्त भी तपहतागन गील में है। वैमा कुकर्म वन को पल में जलाता, जैमा वनानल घने वन को जलाना ।।४८३॥
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