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________________ २२ विविध धर्म सन्मार्ग हैं श्रमण श्रावक भेद से दो, उन्मार्ग शेष, उनको तज शीघ्र से दो । मृत्यु ंजयी अजर है अज है बली है, ऐसा सदा कह रहे जिन केवली हैं ||२९६॥ "स्वाध्याय ध्यान" यति धर्म प्रधान जानो, भाई बिना न इनके यति को न मानो । हे धर्म, श्रावक करें नित दान पूजा, ऐसा करे न, वह श्रावक है न दूजा ।। २९७ ।। होता सुशोभित पदों अपने गुणों मे, साधू सुमंस्तुत वही सब श्रावकों से । पं साधु हो यदि परिग्रह भार धारे सागार श्रेष्ट उनमे गृहधर्म पारे ॥२९८ ॥ कोई प्रलोभवश साध बना पं शाक्तिहीन व्रत पालन में तो श्रावकाचरण ही करता ऐसा जिनेश मत है हमको बताता ॥ २९९ ॥ कराना, हुआ हो रहा हो श्री श्रावकाचरण में व्रत पंच होते, है सात गील व्रन ये विधि पंक होते । जो एक या इन व्रतों सबको निभाता, है भव्य धावक वही जग मे कहाता ||३००|| [ ६० ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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