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दुर्गन्ध अंग तक "संग" जिनेश गाया, यों देह से खुद उपेक्षित हो दिखाया । क्षत्रादि बाह्य सब संग प्रतः विसारो, होके निरीह तन से तुम मार मारो ॥३७६॥ जो मांगना नहिं पड़े गृहवासियों से, ना हो विमोह ममतादिक भी जिन्हों मे। एं मे परिग्रह रखें उपयुक्त होवे, पं अल्प भी अनुपयुक्त न माधु दोवें ॥३७७।।
जो देह देश-श्रम-काल बलानुसार, आहार ले यदि यती करता विहार । नो अल्प कर्म मल से वह लिप्त होता, औचित्य एक दिन है भव मुक्त होता ॥३७८।।
जो बाह्य में कुछ पदार्थ यहाँ दिखाते, वे वस्तुत: नहि परिग्रह है कहाने । मूर्छा परिग्रह परन्तु 'यथार्थ में है, श्री वीर का सदुपदेश मिला हमें है ।।३७९॥
ना संग संकलन संयत हो करो रे ! शास्त्रादि साधन मुचारू मदा धरी रे । ज्यों संग की विहग ना रखने अपेक्षा त्यों संयमी ममरसी, सबकी उपेक्षा ॥३८०॥
पाहार-पान-शयनादिक खूब पाते, पै अल्प में सकल कार्य सदा चलाते । मंतोष-कोष, गतरोष, प्रदोष साधु, वे धन्य धन्यतर हैं शिर मैं नवा दूं ॥३०॥
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