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ना स्वप्न में न मन में न किसी दशा में, लेते नहीं प्रशन वे मुनि हैं निशा में । जिह्याजयी जितकषाय जिताक्ष योगी, कैमे निशाचर बनें, बनते न भोगी ॥३८२॥ पाकीर्ण पूर्ण धरती जब थावरों से, मूक्ष्मातिसूक्ष्म जग जंगम जंतुओं मे : वे रात्रि में न दिखते यग लोचनों मे, कमे बने अशन शोधन साधुओं मे ?।।३८३।।