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लो ! कांच को कनक को सम ही निहारे, वैरी सरोदर जिन्हें इकसार सारे ।
स्वाध्याय ध्यान करते मन मार देते, ' वे साधु सामायिक को उर थार लेते ४२५।।
• वाक्योग रोक जिसने मन मौन धारा,
औ वीतराग बन पातम को निहारा । होती समाधि परमोत्तम ही उसी की, पूजू उमे, भरण और नही किमी को ।।४२६॥
प्रारम्भ दम्भ तजके त्रय गप्ति पाले, है पच टन्द्रियजयी ममदृष्टि वाले। स्थाई सुसामयिक है उनमे दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥४२७।'
है साम्यभाव रखते त्रम थावरों में, म्थाई मुमामयिक हो उन माधुम्रो मे। ऐसे जिनेश मत है मत भूल रे ! तू, भाई! अगाध भव वारिधि मध्य मेतु ॥४२८।।
आदीश आदि जिन है उन गीत गाना, लेना मुनाम उनके यश को बढाना । प्रो पूजना नमन भी करना उन्ही को, होता जिनेश ग्तव है प्रण{ उमी को॥४२९॥
द्रव्यों थलों समयभाव प्रणालियों में, है दोष जो लग गये, अपने व्रतों में । वाक्काय मे मनस से उनको मिटाने, होती प्रतिक्रमण की विधि है सयाने । ॥४३०।।
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