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उत्साह-चाह-विधि-राह पदानुसार, मारोग्य-काल-निज देह बलानुसार । ऐसा करें अनशना ऋषि साधु सारे, शुद्धात्म को नित निरंतर वे निहारें ॥४४५।।
लेते हुए प्रशन को उपवास साधे । जो साधु इन्द्रियजयी निजको अगधे । हों इन्द्रियाँ शमित तो उपवास होता, धोता कुकर्म मल को, सुख को संजोता ।।४४६।।
मासोपवास करते लघु धी यमी में, ना हो विशुद्धि उतनी, जितनी सुधी में । पाहार नित्य करते फिर भी तपस्वी, होते विशुद्ध उर में, श्रुत में यशस्वी !!४४७।।
जो एक-एक कर ग्रास घटा घटाना, प्रो भूख से प्रशन को कम न्यन पाना ऊनोदरी तप यही व्यवहार में है, ऐसा कहें गुरु, सुद बिकार में है ।।८४८।।
दाता खड़े कलश ले हंसते मिले तो । लेऊ तभी प्रशन प्राङ्गण में मिले तो। इत्यादि नेम मुनि ले अशनार्थ जाते, भिक्षा क्रिया यह रही गुरु यों बनाते ।। ४८१।।
स्वादिष्ट मिष्ट प्रति इन्ट गरिप्ट खानाघी दूध मादि रस हैं इनको न वाना । माना गया तप वही "रस त्याग" नामा धार उमे, वर सकू वर मुक्ति रामा ।। ४५०।।
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