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एकांत में, विजन कानन मध्य जाना, श्रद्धासमेत शयनासन को लगाना, । होगा वही तप सुधारस पेय प्याला, प्यारा "विविक्त शयनासन' नाम वाला ॥४५१॥ वीरासनादिक लगा, गिरि गव्हरों में, नाना प्रकार तपना वन कन्दरों में । है कायक्लेश तप, तापस तापतापी पुण्यात्म हो धर उसे तज पाप पापी ॥४५२।।
जो तत्व बोध सुखपूर्वक हाथ आता । पाते हि दुःख झट से वह भाग जाता । वे कायक्लेश समवेत प्रतः सुयोगी, तत्वानुचितन करें समुपोपयोगी ॥४५३।। जाता किया जब इलाज कुरोग का है, ना दुःख हेतु सुख हेतुन रुग्ण का है। भाई इलाज करने पर रुग्ण को ही, हो जाय दुःख, सुख भी सुन भव्य' मोही !॥४५४।। त्यों मोहनाश सविपाकतया यदा हो, ना दुःख हेतु सुख हेतु नहीं तदा हो । पं मोह के विलय में रत है वसी को, होता कभी दुःख कभी सुख भी उसी को ॥४५५।।