________________
(प्रा) प्राभ्यन्तर तप "प्रायश्चिता" "विनय" प्रौ ऋषि साधु सेवा, "स्वाध्याय" ध्यान धरते वरबोध मेवा व्युत्सर्ग, स्वर्ग अपवर्ग महर्घ-दाता हैं अन्तरंग तप ये छह मोक्ष धाता ।।४५६।। जो भाव है समितियों व्रत संयमों का, प्रायश्चिता वह सही दस इन्द्रियों का । ध्याऊँ उसे विनय से उर में बिठाता, होऊँ अतीत विधि से विधि सो विधाता ॥४५७।। कापायिकी विकृतियाँ मन में न लाना, आ जाय तो जब कभी उनको हटाना। गाना स्वकीय गुणगीत सदा मुहाती, प्रायश्चिता वह सनिश्चय नाम पाती ॥४५८।।
वर्षों युगों भवभवों समुपाजितों का होता विनाश तप से भवबन्धनों का । प्रायश्चिता इसलिए "तप" ही रहा है त्रैलोक्य पूज्य प्रभु ने जग को कहा है ।।४५९।। पालोचना अरु प्रतिक्रमणोभया है, व्युत्सर्ग, छेद, तप, मूल, विवेकता है । श्रद्धान और परिहार प्रमोदकारी, प्रायश्चिता दशविधा इस भाँति प्यारी ।।४६०।। विक्षिप्त चित्तवश प्रागत दोषकों की, हेयों अयोग्य अनभोग कृतादिकों की। मालोचना निकट जा गुरु के करो रे । भाई, नहीं कुटिलता उर में धरो रे ! ॥४६१॥
| ८६
।