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२८ तप सूत्र (प्र) बाह्य तप
जो ब्रम्हचर्य रहना, जिन ईश पूजा,
सारी कषाय तजना,
तजना न ऊर्जा ।
ध्यानार्थ अन्न तजना
प्रायः सदा भविक लोग
में द्विविध रे
!
'तप' ये कहाते,
इन्हें निभाते ||४३९ ||
है मूल जो अन्तरंग बहिरंग तया सुहाता । हैं अन्तरंग तप के छह भेद होते हैं भेद बाह्य तप के उतने ही होते ||४४० ।।
तप मुक्तिदाता,
"ऊनोदरी " " अनशना" नित पाल रे !
तू
"भिक्षा क्रिया" रस विमोचन मोक्ष हेतु । "संलीनता" दुःख निवारक ये बाह्य के छह हुए कहते
कायक्लेश,
जिनेश ॥ ४४१ ॥
जो कर्म नाश करने है त्यागता प्रशन को, तन को साधू वही अनशना तप
होती सुशोभित तभी जग
समयानुसार,
संवार ।
साधता है,
साधुता है || ४४२ ||
श्रुत-बोध पाने,
शाने ।
प्रहार अल्प करते वे तापसी समय में कहलाय भाई बिना श्रुत उपोषण प्राण खोना । प्रात्मावबोध उससे न कदापि होना । ४४३ ॥
ना इन्द्रियाँ शिथिल हों मन हो न पापी, ना रोगकानुभव काय करे कदापि, होती वही मनशना, जिससे मिली हो भारोग्यपूर्ण नव चेतनता खिली हो || ४४४ ॥
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