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जो मातमा न तजता निज भाव को है, स्वीकारता न परकीय विभाव को है। दृष्टा बना निखिल का परिपूर्ण ज्ञाता, "मैं ही रहा वह" सुधी इस भांति गाता ॥४३७।।
जो भी दुराचरण है मुझ में दिखाता, वाक्काय से मनस से उसको मिटाता । नीराग सामयिक को विविधा करूँ मैं तो बार-बार तन धार नहीं मरूँ मैं ।।४३८॥