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नो भागमा त्रिविध "ज्ञायक देह भावी, पो "कर्म रूप" जिन यों कहते स्वभावी। हे भव्य तू समझ ज्ञायक भी विधा है, जो भूत सांप्रत भविष्यतया कहा है ॥ मी त्यक्त च्यावित तथा च्युत यों त्रिधा है, मो "भूत ज्ञायक" जिनागम मे लिखा है ।।
शास्त्रज्ञ की जड़मयी उस देह को ही, तद्रूप जो समझना अयि भव्यमोही । माना गया कि वह "शायक देह" भेद, ऐसा जिनेश कहते जिनमें न खेद ॥ नीतिज्ञ के मृतक केवल देह को ले, लो "नीति" ही मर चुकी जिस भाति बोले ॥
जो द्रव्य की कल दशा बन जाय कोई, तद्रूप आज लखना उम द्रव्य को ही। श्री वीर के समय में बम "भावि" सोही, राजा यथा ममझना युवराज को ही ॥
कर्मानुसार अथवा जग मान्यता ले, रे ! वस्तु का ग्रहण जो कर ले करा ले । है "कर्म भेद" वह निश्चित ही कहाता, ऐसा "वमन्त निलका" यह छन्द गाता ।।
देवायु कर्म जिमने बस बांध पाया, ज्यों आज ही समझना यह "देव राया" । या पूर्ण कुम्भ कलदर्पण आदि भाते, लोकोपचारवश मंगल ये कहाते ।।७४१-७४२॥
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