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निद्रा न मोहतम विस्मय भी नहीं है, ये इन्द्रियाँ जड़मयी जिसमें नहीं हैं । बाधा कभी न उपसर्ग तृषा क्षुधा है, निर्वाण में सुखद बोधमयी सुधा है ॥६१८।।
चिन्ता नहीं उपजती चिति में जरा सी, नोकर्म भी नहि, नहीं वसु कर्म राशि । होते जहाँ नहि शुभाशुभ ध्यान चारों, निर्वाण है वह रहा तुम यों विचारो ।।६१९॥
कैवल्य-बोध मुख दर्शन वीर्य वाला,
आत्मा प्रदेशमय मात्र अमूर्त शाला । निर्वाण में निवसता निज नीतिधागे, अस्तित्व में विलसता जग पार्नहारी ॥६२०॥
पाते महर्षि ऋषि मन्त जिगे, वही है, निर्वाण सिद्धि गिव मोक्षमही मही है । लोकाग्र है गुख अबाधक, क्षेम प्याग, वन्दं उमे विनय में बम बार-बाग ।।६२१॥
एरण्डवीज महमा जव मूख जाता, है. ऊध्वं हो नि म मे उडता दिवाना । हो पंक लिप्त जल में वह दब जाती, तुम्वी सपंक नजती द्रुत ऊर्ध्व पाती ।
छ्टा हुआ धनुष मे जिम भांनि बाण, हो पूर्व योग वश हो गतिमान मान ! श्री सिद्ध जीवगति भी उम भांति होती. धूमाग्नि की गति समा वह ऊर्ध्व होती ॥६-२॥
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