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चारित्र ही परम धर्म यथार्थ में है, साधू जिसे शममयी लख साधते हैं। मोहादि से रहित मातम भाव प्यारा, माना गया समय में शम साम्य मारा।।२७४।। मध्यस्थ भाव समभाव, विराग भाव चारित्र, धर्ममय भाव, विशुद्ध भाव, प्राराधना स्वयम की पद सात सारे हैं भिन्न-भिन्न, पर प्राशय एक घारे ॥२७५।। शास्त्रज्ञ हो श्रमण हो समधी तपस्वी, हो वीतराग व्रत संयम में यशस्वी । जो दुःख में व सुख में समता रखेगा गुद्धोपयोग उस ही क्षण में लग्वेगा ॥२७६॥
शुद्धोपयोग दृग है वर बोध-भानु निर्वाण सिद्ध शिव भी उसको हि जानू । मान उमे श्रमणता मन में विटा लं, वन्दू उमे नित नमू निज को जगा लू ।
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मुद्धोपयोग वग साधु मुमिद्ध होते, ग्वात्मोत्थ-मानिगय शाश्वत मोग्य जाते, जाती कही न जिमकी महिमा कभी भी, अन्यत्र छोड जिमको मुख ना कहीं भी ।।८।। वे मोह राग रति रोप नही किमी सेधारें मुमाम्य मुम्व में दुख में मची मे। होके बुभुक्षु न हि भिक्षु मुमक्ष होके प्राते हुए मत्र शुभाशुभ कर्म रोके ।।२७९।।
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