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वे गुप्ति प्रो समिति पालक प्रक्ष जेता,
औ अप्रमत्त परमातम तत्ववेत्ता । हैं कर्म के विविध प्रास्रव रोष पाते, है भावना परम संवर की निभाते ॥५२३।।
है लोक का यह वितान असार सारा, संसार तीव्र गति से गममान न्यारा। यों जान मान मुनि हो शुभ ध्यान धारो, लोकान में स्थित शिवालय को निहारो ॥५२४॥
स्वामी ! जरा मरुण-वारिधि में अनेकों, जो डूबते बह रहें उन प्राणियों को। सद्धर्म ही शरण है गति, श्रेय द्वीप, पूजू उसे शिव लसे सहसा समीप ॥५२५॥
तो भी रहा मुलभ ही वर देह पाना, पं धर्म का श्रवण दुर्लभ है पचाना । हो जाय प्राप्त जिससे कि क्षमा अहिंसा, ये भिन्न-भिन्न बन जाय शरीर, हंमा ।।५२६॥
सद्धर्म का सुलभ है सुनना मुनाना, श्रद्धान पं कठिन है उस पं जमाना। सन्मार्ग का श्रवण भी करते तथापि, होते कई स्खलित हैं मति मूढ़ पापी ।।५२७।।
श्रद्धान प्रो श्रवण भी जिन धर्म का हो, पै संयमाचरण तो अति दुर्लभा हो । लेते सुधी रुचि सुसंयम में कई है, पाते तयापि उसका उसको सहसा नहीं हैं ॥५२८।।
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