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२ जिनशासन सूत्र हो के विलीन जिसमें मनमोद पाते, हैं भव्य जीव भव वारिधि पार जाते । श्री जैन शासन रहे जयवन्त प्यारा, भाई यही शरण, जीवन है हमारा ॥१७॥ पीयूष है, विषय-सौख्य विरेचना है, पोने मुशीघ्र मिटती चिर वेदना है । भाई जरा मरण रोग विनाशती है, संजीवनी मुखकरी 'जिन भारती" है ॥१८॥ जो भी लम्बा सहज मे परहन्त गाया, सत् शास्त्र बाद, गणनायक ने बनाया । पूजू इसे मिल गया श्रुतबोध मिन्धु, पी, बिन्दु, बिन्दु, दृगबिन्दु समेत वन्दू ॥१९॥ प्यारो जिनेन्द्र मुख से निकली मुवाणी, है दोष को न मिलती जिसमें निशानी । प्रो हो विशुद्ध परमागम है कहाता, देखो वही मब पदार्थ यथार्थ गाथा ॥२०॥ श्रद्धा समेत जिन प्रागम जो निहारें, चारित्र भी तदनुसार सदा मधारे । सक्लेश भाव तज निर्मल भाव धारे, ससारिजीवन परीत बनाय मारे ॥२१॥ हे बीतराग जगदीश कृपा करो तो, हे विज्ञ, ज्ञान मुझ बालक मे भगे तो। होऊं विरक्त तन से शिवमार्गगामी, मैं केवली विमल निर्मल विश्व नामी ॥२२॥
समणसुतं