SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३. समापन पहन प्रभो ! अमित दर्शन-ज्ञान-स्पर्शी, वे 'मातृ पुत्र' निखिलज, अनन्तदर्शी । 'वैशालि में' जनम सन्मति ने लिया था, धर्मोपदेश इस भांति हमें दिया था ॥७४५॥ श्री वीर ने सुपथ यद्यपि था दिखाया, था कोटिशः सदुपदेश हमें सुनाया । धिक्कार ! किन्तु हमने उसको सुना ना, मानो ! सुना पर कभी उसको गुना ना ॥७४६।। जो साधु प्रागति-अनागति कारणों को, पीड़ा प्रमोदप्रद मानव-संवरों को। प्रो जन्म को मरण को निज के गुणों को, त्रैलोक्य में स्थित अशाश्वत गाग्वनों को ।। नों स्वर्ग को नरक को दुख निर्जरा को, हैं जानते च्यवन को उपपादता को । श्री मोक्ष-पंथ प्रतिपादन कार्य में है, वे योग्य, वंदन त्रिकाल कर उन्हें मै ॥७४७-७४८॥ वाणी सुभापित मुधा, शुचि 'वीर' की है, थी पूर्व प्राप्त न, अपूर्व प्रभी मिली है। क्यों मृत्यु मे फिर डरूं, तज सर्व ग्रंथि, में हो गया जब प्रभो ! शिव-पंथ-पंथी ।।७४९।। [ १४७ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy