________________
देवादिपर्यय निजी स्थिति लों सुहाता. जो देव रूप उसको तब लौं जनाता । तू मान स्थूल ऋजु सूत्र वही कहाता, ऐसा यहाँ श्रमण सूत्र हमें बताता ।। ७०७।। जो द्रव्य का कथन है करता, बुलाता, श्राव्हान शब्द वह है जग में सुहाता । तत्-शब्द- अर्थ भर को नय जो गहाता, प्रो हेतु तुल्य-नय शब्द अतः कहाता ||७०८ || एकार्थ के वचन में वच लिंग भेद, है देख शब्दनय ही करतार्थ भेद 1 पुंलिंग में व तियलिगन में मुचारा, ज्यों पुष्य शब्द बनता "नख छत्र तारा" ।।७०९ ॥
जो शब्द व्याकरण- सिद्ध, सदा उसी में, होता तदर्थं प्रभिन् न प्रो किसी मे । स्वीकारना बस उसे उस शब्द द्वारा है मात्र शब्दनय का वह काम सारा । ज्यों देव शब्द सुन प्राशय 'देव' लेना, भाई तदर्थ गहना तज शेप देना ।। ७१० ॥
प्रत्येक शब्द प्रभिन्तु प्रत्येक अर्थ अभिन्दु है मानता समभिस्तु ये शब्द इन्दर पुरन्दर
स्वअर्थ में हो, स्वशब्द में हो । सदैव ऐम,
शक जैसे ॥ ११ ॥
शब्दार्थ रूप अभिरूढ़ पदार्थ 'भूत', शब्दार्थ मे म्खलित अर्थ अतः 'प्रभूत' । एवंभूता सुनय है इस भांति गाना, शब्दार्थ तत् पर विशेष श्रतः कहाता ॥७१२।।
[ १३७ ]