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है एक का वह समादर सर्व का है, तो एक का यह अनादर विश्व का है। हो घात मूल पर तो द्रुम सूखता है, दो मूल में सलिल, पूरण फूलता है ॥४६न।।
है मूल ही विनय पाहत शासनों का, हो संयमी विनय से घर सद्गुणों का । वे धर्म कर्म तप भी उनके वृथा हैं, जो दूर हैं विनय से सहते व्यथा है ॥४६९।।
उद्धार का विनय द्वार उदार भाता, होता यही सुतप संयम-बोध-धाता। प्राचार्य संघभर की इससे सदा हो, आराधना, विनय से सुख सम्पदा हो ॥४७०॥
विद्या मिली विनय से इस लोक में भी, देती सही सुख वहां पर लोक में भी । विद्या न पं विनय-शून्य सुखी बनाती, शाली, विना जल कभी फल-फूल लाती?।४७१।।
अल्पज्ञ किन्तु विनयी मुनि मुक्ति पाता, दुष्टाष्ट कर्म दल को पल में मिटाता । भाई अतः बिनय को तज ना कदापि सच्ची मुधा समझ के उसको मदा पी ॥४७२।।
जो अन्न पान शयनासन प्रादिकों को, देना यथा समय सज्जन साधुओं को। कारुण्य द्योतक यही भवताप हारी, सेवामयी मृतप है शिवसौख्यकारी ॥४७॥
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