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मूल क्षम्य हो गुरु स्मृति-स्तुति
वसन्ततिलकाछन्द मैं आपकी सदुपदेग मुघा न पीता, जाती लिखी न मुझसे यह जैनगीता । लग्बक, कवि मैं हूँ नहीं मुझमें कुछ नहिं ज्ञान, त्रुटियाँ होवें यदि यहां गोध पढ़ें धीमान ॥१॥
मंगल कामना
दोहा दो जानमागर गुरो ! मुझको मुविद्या । 'विद्यादिमागर' वनं तज दूं अविद्या ॥२।। यी प्रार्थना वीर मे अनुनय मे कर जोर । हरी भरी दिग्वती रहे धरती चारों ओर ॥३॥
मरहम पट्टी बाप के वण का कर उपचार । ऐगा यदि ना बन मका, डंडा तो मत मार ॥४॥
फल बिछाकर पन्ध में पर-प्रति बन अनुकूल । शूल बिछाकर भूल मे मत बन तू प्रतिकूल ।।५।। तजो रजो गुण, माम्य को सजो, भजो निज धर्म । गर्म मिन, भर दुख मिटे, प्राशु मिटे वमु कर्म ॥६॥ ही मे भो की पोर ही बढ़े सभी हम लोग । छह के आगे तीन हो विश्व शांति का योग ॥७॥
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