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________________ पर में लिखने का एक ही कारण प्राचार्य श्री बनलाते हैं कि सभी पाठकगण छंद को हमेशा गुनगुना सकते हैं प्रोर याद भी कर सकते हैं। पाप भी जब अपने मुंह मे इन छंदों को बोलते हैं तो मुनकर के श्रीनागण गदगद हो जाते हैं । मभी ग्रन्थों में दिये गये उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि प्रापकी चिन्तन शैली विलक्षण है । प्राजकल भी प्राप स्वयं एवं प्रापक मंघ के एलक भुल्लकगण भी अपना अमूल्य समय ज्ञानाराधन में लगाते हैं। एक क्षण भी व्यथं नहीं जाने देने । एक बार हमने कहा कि पाप लांग नी जरूरत से ज्यादा इस गरीर में कार्य लेने हैं, इसको पारा विश्राम भी नहीं देने, ना प्राचार्य श्री बोले कि एक मेकन्ड भी यदि प्रमाद करे ना हमारी कई वर्षों की नपस्या नष्ट हो जाती है। इमनिय प्राप अपने उपयोग की पढाई में, शास्त्र लिम्बने में नथा नत्व चर्चा में ही लगाये रहते है । विशेष बात यह है कि प्राप श्रावको में मात्र तन्व पाही करते हैं, अन्य कोई बात नहीं करते। प्राचार्य श्री की विशेषता है कि किमी भी प्रकार की नत्व चर्चा ही पाप हमेगा प्रमन्न मुद्रा में ही चर्चा करते है, कभी भी प्रापकी मुद्रा मैं म्लानता नहीं पाती । म समय की प्रचलित विवादग्रस्त मान्यतानी जमे निश्चय म्यवहार, निमित्त उपादान, क्रमबद्ध पर्याय, दीनगग मम्यग्दर्शन, सगग मम्यग्दर्शन, निश्चय चारित्र, शुद्धापयोग, शुभापयोग, स्वरूपाचरण, चारित्र का प्रामगनानुन निदोष चिन्तन चिन्हिन ममाधान बहुन ही मग्न अच्छे एव प्रकाट्य उदाहरणों में परिपूर्ण भाषा में करते है कि श्रोता के हृदय में मीधे प्रवेग करके उसका समाधान व ग्ने है। इन मब कारणो मे प्राचार्य विद्यामागर जी को इस युग का ममन्तभद्र कहा जावे ना कोई अनियनि नही होगी। प्राप चारित्र पालन करने में भी चारित्र न टामणि है । प्राप छनीनछनीम घंटे तक समाधि में लीन रहते हैं। प्राप अपने मुनि दीक्षाकाल मे ही चार रसों का त्याग किये हुए है. मिपं दो रम ( दही, दूध ) के ही पाप लेते है । मापके निर्दोष चारित्र पालन नथा तत्त्वज्ञान एवं प्रवर बुद्धि को देखकर ही प्राचार्य श्री ज्ञानमागर जी महाराज ने स्वयं प्राचार्य पद छोडकर पापको प्राचार्य पद में विभूपित किया। जिनके गम में इतनी विलक्षण विनय-सम्पन्नता हो कि अपने शिष्य को ही प्राचार्य पद देकर उनको नमस्कार किया होवे उनके निप्य की विनय-मम्पन्नता भी अपूर्व ही
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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