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३६. सृष्टि सूत्र हैं, वस्तुतः यह अकृत्रिम लोक भाता, प्राकाग का ही इक भाग अहो ! कहाता! भाई अनादि अविनश्वर नित्य भी है, जीवादि द्रव्य दल पूरित पूर्ण भी है ॥६५१॥ पा योग अन्य अणु का अण स्कन्ध होता, है स्निग्ध मक्ष गुण धारक चूंकि होता। ना शब्द रूप प्रण है, इक देश धारी, प्रत्यक्ष ज्ञान लखता "अण" निर्विकारी ।।६५२।। ये मूक्ष्म स्थूल द्यणुकादिक म्कन्ध सारे, पृथ्वी जलाग्नि मरुतादिक रूप धारे । कोई इन्हें न ऋपि ईश्वर ही बनाते, 4 स्वीय शक्ति वश ही बनते सुहाते ॥६५३॥ सूक्ष्मादि म्वन्ध दल से त्रय लोक मारा, पूरा ठसाठस भरा प्रभु ने निहाग। है योग स्कन्ध उनमें विधि रूप पाने, होते अयोग्य कुछ हैं समझो सयाने ॥६५४।। ज्यों जीव के विकृत भाव निमित्त पाती, वे वर्गणा विधिमयी विधि हो सताती। पाल्मा उन्हें न विधिरूप हठात् बनाता, होता म्वभाववश कार्य सदा दिखाता ॥६५५।।
रागादि से निरखता यदि जानता है, पंचेंद्रि के विषय को मन धारता है । रंजायमान उसमें वह ही फैमेगा, दुष्टाष्ट कर्म-मल में चिर प्रो लसेगा ।।६५६।।
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