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निष्कम्प मेरू सम जो जिन भक्ति न्यारो, जागी, विराग जननी उर मध्य प्यारी । वे शल्यहीन बनते रहते खुशी से, निश्चिन्त हो, निडर, ना डरते किसी से ॥३०७॥
संसार में विनय की गरिमा निराली, है शत्रु मित्र बनता मिलती शिवाली। धारे प्रतः विनय थावक भव्य सारे, जावे सुशीघ्र भववारिधि के किनारे ॥३०८।।
हिंसा, मुषावचन, स्तेय कुशीये लता, मूर्छा परिग्रह इन्हीं वश हो व्यथायें । हैं पंच पाप इनका इक देश त्यागहोता अणुव्रत, घर जग जाय भाग ॥३०९।।
हा ! बंध छेद वध निर्बल प्राणियों का, संरोष अन्न जल पाशव मानवों का । क्रोधादि से मत करो टल जाय हिंसा, जो एक देश व्रत पालक हो अहिंसा ॥३१०॥
भू-गो सुता-विषय में न प्रसत्य लाना, झूठी गवाह न धरोहर को दबाना । यों स्थूल सत्य व्रत है यह पंचधारे, मोक्षेन्छु श्रावक जिसे रुचि संग धारे ॥३११।। मिध्योपदेश न करो सहसा न बोलो, स्त्री का रहस्य अथवा पर का न खोलो। ना कूट लेखन लिखो कुटिलाइता से, यों स्थल सत्य व्रत धार बचो व्यथा से ॥३१२॥