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जैन गीता ( समणसुत्तं का पद्यानुवाद)
१ मङ्गलसूत्र वसन्ततिलकाछन्द
हे ! शान्त सन्त अरहन्त अनन्त ज्ञाता, हे ! शुद्ध बुद्ध जिनसिद्ध प्रबद्ध धाता । प्राचार्यवर्य उवझाय मुसाधु सिन्धु मै बार बार तुम पाद पयोज वंदूं ॥ १।" है मूलमंत्र नवकार मुखी बनाता, जो भी पढ़े विनय मे प्रघको मिटाता । है प्राद्य मंगल यही मब मगलों में, ध्यानो इमे न भटको जग जंगलों में ॥ २ ॥ मर्वजदेव अरहन्त परोपकारी, श्री सिद्ध वन्द्य परमातम निर्विकारी । श्री केवली कथित प्रागम माधु प्यारे, ये चार मंगल, अमंगल को निवारे ।। ३ ।। श्री वीतराग अरहन्त कुकर्मनाशी, श्री सिद्ध शाश्वत सुखी शिवधामवामी । श्री केवली कथिन पागम साधु प्यारे, ये चार उत्तम, अनुनम गेप मारे ।। ४ ।। ये बाल भानु मम हैं अरहन्त म्वामी, लोकाग्र में स्थित मदाशिव सिद्ध नामी । श्री केवली कथित पागम माधु प्यारे, ये चार ही शरण में जगमें हमारे ।। ५ ।।
पचानुवाद