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मारमा न मातम मनातम को लखेगा, सम्यक्त्व पात्र किस भौति महो बनेगा। प्राचार्य देव कहते बन वीतरागी, क्यों व्यर्थ दुःख सहता, तज राग रागो ॥२५॥
तत्वाववोधि सहसा जिससे जगेगा, चांचल्यचित्त जिससे वश में रहेगा। प्रात्मा विशुद्ध जिससे शशि सा बनेगा, होगा वही "विमल ज्ञान" स्व-सौख्य देगा ॥२५२॥
माहात्म्य ज्ञान गुण का यह मात्र सारा, रागी विराग बनता तज राग खारा। मैत्री मदेव जग मे रखता सुचारा, शुद्धात्म में विचरता, मुख पा प्रपारा ॥२५३।।
मात्मा अनन्त, नित, शून्य उपाधियों से, अत्यन्त भिन्न पर से विधि बन्धनों से । ऐसा निरन्तर निजातम देखते हैं वे ही समग्र जिनशासन जानते हैं ।।२५४।।
हूं काय से विकल, केवल केवली हैं मैं एक हूँ विमल ज्ञायक हूँ बली हूँ जो जानता स्वयम को इम भांति स्वामी, निर्धान्त हो वह जिनागम पारगामी ॥२५॥
साधू समाघिरत हो निज को विशुद्धजाने, बने महज शुद्ध प्रवद्ध बुद्ध । रागी स्वको समझ राग मयी विचाग, होता न मुक्त भव से, दुख हो अपारा ।।२५६।।
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