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हूँ ज्ञानवान, मन ना, तन ना, न वाणी, होऊं नहीं करण भी उनका न मानी । कर्ता न कारक न हूं अनुमोद दाता, घाता स्वकीय गुण का पर से न नाता ॥१८९॥ स्वामी ! जिसे स्वपर बोध भला मिला है, सौभाग्य से दग-सरोज खुला खिला है । वो क्या कदापि पर को अपना कहेगा ? ज्ञानी न मढ़ सम दोष कभी करेगा ॥१९०।। मैं एक, शुद्धनय से दृग बोध स्वामी, हूं शुद्ध, बुद्ध, अविरद्ध प्रबद्ध नामी । निर्मोह भाव करता निज लीन होऊ. शुद्धोपयोग-जल मे विधि पंक धोऊ ।। १ - १॥
卐 प्रथम खण्ड समाप्त
दोहा
ज्योतिर्मुख को नित नम, छुटे भव-भव-जेल, मत्ता मुझको वह दिने ज्योति ज्योनि का मेल ।।१।।
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