________________ 10 संयम सूत्र आत्मा मदीय दुखदा तरु शाल्मली है, दाहात्मिका-विषम-वैतरणी नदी है / किंवा सुनंदन वनी मनमोहिनी है, है काम धेनु सुखदा दुख हारिणी है // 122H प्रात्मा हि दुःख सुख रूप विभाव कर्ता, होता वही इसलिए उनका प्रभोक्ता / आत्मा अनात्म रत ही रिपु है हमारा, तल्लीन हो स्वयम में तब मित्र प्यारा / / 123 // आत्मा मदीय रिपु है वन जाय स्वरी, स्वच्छन्द-इन्द्रिय-कषाय-निकाय बैरी / जीत उन्हें जिननियंत्रणमें रखें मैं, धर्मानुमार चलके निज को लखू में / / 124 / / जीत भले हि रिपु को रण में प्रतापी, मानो उमे न विजयी, वह विश्व तापी / रे ! शूर वीर विजयी जग में वही है, जो जीतता म्वयम को वनता मुखी है // 25 // जीतो भन्न हि पर को, पर क्या मिलेगा? पूर्वी तुम्हे दरित क्या उममे टलंगा? भाई लड़ो स्वयम में मन दूमों में, छूटो मभी महज में भव बधनों से // 126 / / अत्यन्त ही कठिन जो निज जीतना है, कर्तव्य मान उमको वम माधना है। जो जी रहा जगत में वन यात्म जता, . सर्वत्र दिव्य मुख का वह लाभ लेता // 127 / / पमानवाद