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ना मुग्ध मूढ़ मुनि हो जग वस्तुवों में, हो लीन आप अपने अपने गुणों में। वे ही महान समदृष्टि अमृढ़ दृष्टि, नामाग्र दृष्टि रख नाशत कर्म-मृप्टि ।।२३७॥
चारित्र वोध दृग मे निज को सजानो, धागे क्षमा तप तपो विधि को स्वपाम्रो । माया-विमोह-ममता नन मार मागे, हो वर्धमान, गतमान, प्रमाण धागे ॥२३॥
माम्बार्थ गौण न करो, न उमे छुपायो, विज्ञान का मद घमण्ड नहीं दिखायो। भाई किमो मुबुध की न हमी उड़ानो, प्रागीग दो न पर को पर को भुलायो ॥२३९।।
ज्यों ही विकार लहरें मन में उठे तो, तत्काल योग त्रय में उनको ममेटो । मौचित्य प्रस्व जव भी पथ भूलता हो ले लो लगाम कर में अनकलना हो ॥२४०॥
है ! भव्य गौतम ! भवोदधि नैर पाया, पर्यो व्यर्थ ही रुक गया तट पाम पाया ! ले ले छलांग झट से अब तो धरा पे पालस्य छोड़ वरना दुख ही वहाँ पे ॥२४१॥
श्रद्धा समेन चलते बुध धामिकों की सेवा मुभक्ति करते उनके गुणों की। मिश्री मिले वचन जो नित बोलते हैं वात्सल्य पङ्ग धरते, दग खोलते हैं ॥२४२॥
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