Book Title: Vividh Tirth Kalpa
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Gyanpith

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Page 22
________________ प्रास्ताविक निवेदन । साथ लिखे हुए हैं । इस संग्रहमें १५. १६. १८. ३३. ३४. ४२. ४६. ५१ से ५६ तक-इस प्रकार १३ कल्प अनुपलब्ध हैं। यद्यपि इस प्रतिमें कल्पोंका क्रम, अन्य सब प्रतियोंसे भिन्न प्रकारका है; तथापि वह कुछ अधिक संगत मालूम देता है । गिरनार अर्थात् उज्जयंत अथवा रैवतक पर्वतसे संबंध रखनेवाले जो ४ कल्प प्रस्तुत ग्रन्थमें हैं, वे जिस क्रमसे इस प्रतिमें लिखे गये हैं वह क्रम अधिक ठीक लगता है । उन्हींके बाद इसमें अंबिकादेवीका कल्प है जिसका भी सम्बन्ध एक प्रकारसे रैवतक पर्वतके साथ होनेसे, उसका यह स्थान ठीक सम्बन्धयुक्त मालूम देता है । अम्बिकाकल्पके बाद ही जो कपर्दियक्षकल्प लिखा हुआ है वह भी उचित स्थानस्थित दिखाई दे रहा है । बल्कि इस कल्पके अन्तमें तो ग्रन्थकारका कथन भी इस बातको सूचित करता है कि उन्होंने अम्बादेवी और कपर्दियक्ष, इस कल्पयुगकी (देखो पृष्ठ ५६ का अन्तिम उल्लेख) एक साथ रचना की । ऐसा उल्लेख होने पर भी ये दोनों कल्प, और सब प्रतियोंमें क्यों भिन्न-क्रममें लिखे गये मिलते हैं इसका कोई कारण समझमें नहीं आता । उसमें भी अम्बिकाकल्प तो बिल्कुल ग्रन्थके अन्त में जा पडा है जिससे बहुतसी प्रतियों में तो वह अनुल्लिखित ही रह जाता है । इसी तरह क्रमांक २६ और ४० वाले कल्प इस प्रतिमें साथ साथ लिखे हुए मिलते हैं जो अधिक यथास्थित कहे जा सकते हैं । क्यों कि दोनोंका स्थान एक ही (पाटण) है। सबके अन्तमें कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्प (क्रमांक २२) रखा है और उसके अंतमें ग्रन्थसमाप्तिसूचक कथन दिया है-सो भी एक प्रकारसे सम्बन्धयुक्त दिखाई देता है। इस प्रतिमें जिन कल्पोंका संग्रह है उनके अवलोकनसे मालूम देता है कि प्रायः मुख्य मुख्य कल्प इसमें सब आगये हैं । जो इसमें संगृहीत नहीं है उनमें कलिकुंडकुकुटेश्वर (१५), हस्तिनापुर (१६), प्रतिष्ठानपुर (३३), सातवाहनचरित्र (३४), वस्तुपाल-तेजःपाल (४२), कन्यानयनीयपरिशेष (५१) और अमरकुंडपद्मावती (५३) नामके कल्प कुछ महत्त्वके हैं । बाकीके कल्प तो नाम मात्रके कल्प हैं। वास्तव में वे तो स्तुति-स्तोत्र हैं जिनका ग्रन्थगत उद्देश्यके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है। इससे यह ज्ञात होता है कि जिसने इस प्रतिको तैयार किया है उसने कुछ विचारपूर्वक प्रयत्न किया है। इस प्रयत्नका कर्ता कौन है उसका कोई निर्णायक उल्लेख नहीं प्राप्त होता ! क्या जिस राजगच्छीय वाचक गुणकलश (?) ने उक्त दो कल्पोंका संस्कृत रूपांतर करनेका प्रयत्न किया है उसीने तो यह संग्रह इस क्रममें नहीं प्रथित किया हो । इस प्रति के अक्षर यद्यपि स्पष्ट और सुवाच्य हैं तथापि पाठशुद्धि कोई विशेष उल्लेखयोग्य नहीं है । हां, कहीं कहीं इसका पाठ, अन्य प्रतियोंकी अपेक्षा अधिक उपयुक्त मिल जाता है जो सन्दिग्ध स्थानमें ठीक मददगार हो जाता है। __ प्रतिके अन्तमें जो पुष्पिकालेख है उससे विदित होता है कि संवत् १५६९ के आषाढ महिनेमें-सुदि १ सोमवार और पुनर्वसुनक्षत्रवाले दिनको-वैरिसिंहपुरके रहनेवाले श्रीमाली ज्ञातिके बहकटा गोत्रीय महं० जिणदत्तके पुत्र, महं. भाजाके पुत्र, महं. रायमल नामक श्रावकने इस ग्रन्थको लिखवा कर, खरतर गच्छके आचार्य श्रीजिनभद्र सूरिके शिष्य आचार्य श्रीजिनचंद्र सूरिके शिष्य आचार्य श्रीजिनेश्वर सूरिके शिष्य वाचक साधुकीर्ति गणीको समर्पित किया । यह पुष्पिकालेख अन्धान्तमें, पृष्ठ ११० पर, मुद्रित है। __P प्रति- उपर्युक्त स्थानमेंकी एक चौथी प्रति । इसकी पत्र संख्या २४ है । यह एक अपूर्ण संग्रह है । इसका प्रथम पत्र है उस पर ३० का क्रमांक लिखा हुआ है। ३० से लेकर ५३ तकके पने इसमें उपलब्ध हैं। इसका प्रारंभ चम्पापुरीकल्प (क्रमांक ३५) से होता है, और समापन कन्यानयनीयमहावीरमतिमाकल्प (क्र. २२) के साथ होता है । इसमें सब मिलाकर १६ कल्प लिखे हुए हैं और उनका क्रम इस प्रकार है

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