Book Title: Vividh Tirth Kalpa
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ १ चम्पापुरीकल्प २ पाटलीपुत्रपुरकल्प ३ वाणारसी नगरीकल्प प्रास्ताविक निवेदन ! ४ मन्त्रिद्वयकल्प, (मात्र ३ श्लोक ) ५ कुडुंगेश्वरनाभेयकल्प ६ अर्बुदकल्प ७ अभिनन्दनदेवकल्प ८ प्रतिष्ठानपुरकल्प (स्तोत्र ) ९ ढींपुरीस्तोत्र १० नन्दीश्वरकल्प ११ महावीरगणधरकल्प १२ चतुरशीति तीर्थनामसंग्रहकल्प १३ पंचपरमेष्ठिनमस्कारकल्प १४ रत्नवाहपुरकल्प १५ पावापुरीकल्प (बृहत् ) १६ कन्यानयनीय महावीरकल्प ७ इस क्रमके देखनेसे ज्ञात होता है कि, सिर्फ पहले कल्पको छोड़ कर, बाकी के १५ ही कल्प, ठीक उसी क्रममें लिखे हुए हैं, जिस तरह उपर्युल्लिखित P प्रतिमें लिखे हुए हैं । १ से २८ तकके पत्र अनुपलब्ध होनेसे, इस संग्रहमें कुल कितने कल्प होंगे और वे सब किस क्रममें होंगे, उसका कुछ निर्णय नहीं किया जा सकता और निश्चयात्मक रूपसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह संग्रह ठीक P संग्रह - ही का अनुसरण करनेवाला है । ग्रन्थसमाप्ति-सूचक कथन इसमें अन्तिम कल्पके अन्तमें लिखा हुआ है । लेकिन लिखावट और अक्षरोंके देखनेसे मालूम पडता है कि यह कल्प-जो दो पन्नों में है-पीछेसे लिख कर इस प्रतिमें मिलाया गया है । क्योंकि असल लिपिकर्ताने अपनी यह प्रति ५१ वें पत्र में समाप्त कर दी है और उसका सूचक पुष्पिकालेख भी अन्तमें इस तरह लिख दिया है- ॥ समाप्तः श्रीअपापाकल्पः | श्री दीपोत्सव कल्पच ॥ संवत् १५०५ वर्षे फागुणवदि ११ गुरौ । धूका नगरस्थाने वा० धर्मसुंदर गणिना ल(लि ) खितं ॥ इस प्रतिमें दो-तीन तरह की लिखावट दिखाई देती है; इससे मालूम होता है कि दो-तीन व्यक्तियोंने मिल कर इसे लिखा है । पाठशुद्धि साधारण है । E प्रति-पूना ही के उक्त संग्रहमेकी पांचवीं प्रति जिसमें केवल एक अपापाबृहत्कल्प (०२०) लिखा हुआ है। प्रति पुरातन और अच्छी है । लिखे जानेके समयका कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन 'ऋषि भरमा - ऋषि मोकाके पढनेके लिये मुनि चांपाने पींडरवाडा ग्राम में इस प्रतिको लिखा' इतना पता अन्तिम पुष्पिका - लेखसे जरूर लगता है । १८. पाठभेद संग्रहकी पद्धति पाठभेदोंके संग्रह करनेकी हमारी जो पद्धति है उसका परिचय हमने प्रवन्धचिन्तामणिके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें कुछ दे दिया है। इस ग्रन्थ में भी हमने उसी पद्धतिका अनुसरण किया है । व्याकरण या शब्दके स्वरूपकी दृष्टिसे जो जो पाठ हमें शुद्ध मालूम देते हैं उन्हें हम पाठभेद के रूप में संगृहीत कर लेते हैं । लिपिकताओंकी अज्ञानता अथवा अनवधानताके कारण जो अगणित शब्द- अशुद्धियां जहां तहां प्रतियों में दृष्टिगोचर होती रहतीं हैं उन सबका संचय कर, ग्रन्थकी केवल पाद-टिप्पनियोंका कलेवर बढाना हम निरर्थक समझते हैं । १९. तीर्थकल्पकी प्रसिद्धि स्वर्गीय प्रोफेसर पी. पीटर्सनने, बम्बई इलाखेमें संस्कृत ग्रन्थोंका अन्वेषण कर उस विषयकी जो ६ रीपोर्ट पुस्तकें लिखीं, उनमेंकी ४ थी रीपोर्ट में, जिनप्रभसूरि रचित इस तीर्थकल्पका उन्होंने कुछ परिचय दिया और

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160