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प्रास्ताविक निवेदन । ही नहीं हैं । बीचमें, अपापाबृहत्कल्प, जो इस ग्रंथमें सबसे बडा कल्प है, वह भी नहीं है । तदुपरांत, चतुरशीति महातीर्थनामसंग्रहकल्प (क्रमांक ४५) और अष्टापदगिरिकल्प (क्रमांक ४९) भी इसमें सम्मीलित नहीं है । ग्रंथकारका किया हुआ ग्रंथ समाप्ति-सूचक जो कथन है, वह इस प्रतिमें, व्याघ्रीकल्प(क्रमांक ४८) के अन्तमें प्रति पत्र ३६ की प्रथम पृष्ठिपर-लिखा हुआ है। उसके बाद फिर हस्तिनापुर स्तवन आदि कल्प लिखे गये हैं (-द्रष्टव्य कोष्ठक) । इस प्रतिके कल्पकमसे, इस बातका कुछ आभास मिल सकता है कि यह ग्रंथ किस क्रमसे बना हुआ होगा। इसके अक्षर सुन्दर, और स्पष्ट है । पाठ भी बहुत कुछ शुद्ध है। अंतमें लिखने लिखाने वालेका कोई निर्देश नहीं है । सम्भवतः यह भी चार सौ वर्ष जितनी पुरानी होगी।
D प्रति-उसी स्थानकी ४ थी प्रति । पत्र संख्या ४५ | अक्षर अच्छे और सुवाच्य हैं परंतु पाठ साधारण है । इसमें कोई ३२ प्रकरण लिखे हुए हैं । इसका प्रारंभ मथुराकल्प (क्रमांक ९) से, और अंत कोकावसतिपार्श्वनाथकल्प (क्रमांक ४०) से होता है । इस प्रकार इसमें आदिके ८ और अंतके २१ कल्प या प्रकरण नहीं हैं, अतः यह एक प्रकारका अपूर्ण संग्रह है। इस प्रतिमें भी लिखने-लिखाने वालेका कोई पुष्पिका लेख नहीं है। इससे यह नहीं ज्ञात हो सकता कि यह प्रति कब लिखी गई है। परंतु, इसके अंतमें जो ५ पद्योंका एक छोटासा प्रशस्ति-लेख, जो कि पीछेसे लिखा गया मालूम देता है, उससे इतना ज्ञात हो सकता है कि विक्रम संवत्की १७ वीं शताब्दीके शेप चरणके पहले यह कभी लिखी गई होगी । इस प्रशस्ति-लेखसे विदित होता है कि-अकबर बादशाहने जिनको जगद्गुरुका पद प्रदान किया उन आचार्य हीरविजय सूरिके शिष्य आचार्य विजयसेनके पट्टधर आचार्य विजयतिलक सूरिके समयमें, विजयसेन सूरि-ही-के शिष्य रामविजय विबुधने, जो हैमव्याकरण, काव्यप्रकाश आदि शास्त्रोंके निष्णात पंडित थे, इस प्रतिको उस ज्ञानभंडारमें स्थापित की, जिसमें पंदरह लाख पुस्तकें संगृहीत की गई थीं। __Pa प्रति-पूनाके भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिरमें संरक्षित राजकीय-ग्रंथ-संग्रहकी ६२ पत्र वाली प्रति । यह प्रति संपूर्ण है और इसमें A प्रतिके समान ही सब कल्पोंका संग्रह है। सिर्फ पंचकल्याणकस्तवन (क्रमांक ५६) जो सोमसूरिकी कृति है, वह इसमें नहीं है। इस प्रकार इसमें कुल ५८ प्रकरण उपलब्ध हैं। कलिकुंड-कुर्कुटेश्वर नामका कल्प (क्रमांक १५) इसमें भी A प्रतिके समान दो दफह लिखा हुआ है। ग्रन्थसमाप्ति-सूचक कथन इसमें अष्टापदकल्प (क्रमांक ४९) के अन्तमें-पृष्ठ ५३ की दूसरी पूंठी पर-लिखा हुआ है । इसके बाद फिर हस्तिनापुरतीर्थस्तवन आदि प्रकरण लिखे हुए हैं । अन्तमें फिर कोई दूसरा निर्देश नहीं है । लिपिकारने "सं० १५२७ वर्षे आषाढ सदि ७ गुरौ सर्वत्र संख्या अलावा ग्रंथाग्रं ३६०२५ संख्या ॥ श्रीरस्तु । शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु ॥" इस प्रकारका उल्लेख किया है जिससे यह प्रति कत्र लिखी गई इसका मात्र सूचन मिलता है। इसकी लिखावट अच्छी और स्पष्ट है । पाठ भी प्रायः बहुत कुछ शुद्ध मिलता है। ___P प्रति-यह प्रति भी पूनाके उक्त संग्रहकी है। इसकी पत्र संख्या ८५ है। इसमें आदिसे लेकर ५५ वें क्रमांक तक्रके प्रकरणोंका संग्रह है, और इसी क्रममें है । अन्तके ५ कल्प इसमें नहीं हैं। ग्रन्थ-समाप्ति-सूचक जो कथन है वह इसमें दो जगह लिखा हुआ मिलता है। एक तो Pa प्रतिकी तरह अष्टापदकल्प (क्रमांक ४९) के अंतमें-पत्र ७८ की द्वितीय पूंठी पर-और दूसरा अन्तिम पत्र पर, जहां कल्याणकस्तवन समाप्त
. - --- - -..... --- --- -- ------.. __ + इन पंदरह लाख पुखकोंसे मतलब पंदरह लाख श्लोकका मालुम देता है न कि पंदरह लाख प्रतियों या पोथियोंका। रामविजय विवुधने अपने परिश्रमसे एक ऐसा ज्ञानभंडार स्थापित किया था जिसमें जितने ग्रंथ या प्रतियां थीं उनकी सब श्लोक संख्या, गिनने पर पंदरह लाख जितनी होती भी। शायद यह भंडार पाटणमें था।