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विवाह क्षेत्र- प्रकाश ।
प्रतिपाद्य विषय, श्राशय और उद्देश्य वह नहीं हैं जो समालोचकजी ने प्रकट किया है - इसमें कहीं भी यह प्रतिपादन नहीं किया गया और न ऐसा कोई विधान किया गया है कि गोत्र, जाति पांति, नीच ऊँच, भंगी चमार चाण्डालादिके भेदोको उठा देना चाहिये, उन्हें मेटकर हरएक के साथ विवाह करलेना चाहिये, चाहे जिसकी कन्या ले लेनी चाहिये, अथवा भंगी चमार आदि नीच मनुष्यों के साथ विवाह करलेने में कोई हानि नहीं है; और न कहीं पर यह दिखलाया गया अथवा ऐसी कोई आशा दीगई है कि आजकल अपनी ही बहिन भतीनी के साथ विवाह कर लेने में कोई हानि नहीं है, अन्य गोत्रकी कन्या ब मिलने पर उसे करलेना चाहिये-बल्कि बहुत स्पष्ट शब्दों में वसुदेवजी के समय और इस समय के रीति रिवाजों-विवाह विधानों में "जमीन श्रस्मान का सा अन्तर" बतलाते हुए, उनपर एक खासा विवेचन उपस्थित किया गया है और उसमें रीति-रिवाजों की स्थिति, उनके देशकालानुसार परिवर्तन तथा लौकिक धर्मोके रहस्थको सूचित किया गया है । साथही, यह बतलाया गया है कि "वर्तमान रीति रिवाज कोई सर्वश भाषित ऐसे अटल सिद्धान्त नहीं हैं कि जिनका परिवर्तन न हो सके अथवा जिनमें कुछ फेरफार करने से धर्मके डूब जानेका कोई भय हो, हम अपने सिद्धान्तों का विरोध न करते हुए देशकाल और जातिकी श्रावश्यक्ताओं के अनुसार उन्हें हरवक्त बदल सकते हैं, वे सबहमारे ही कायम किये हुए नियम हैं और इसलिये हमें उनके बदलने का स्वतः अधिकार प्राप्त है । " परन्तु उनमें क्या कुछ परिवर्तन अथवा तबदीली होनी चाहिये, इसपर लेखक ने अपनी कोई राय नहीं दी। सिर्फ इतना ही सूचित किया है कि वह परिवर्तन ( फेरफार) "यथोचित" होना चाहिये, और 'यथोचित' की परिभाषा वही हो सकती है जिसे