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विवाह क्षेत्र प्रकाश |
जो उसी को एक पति मान कर उसके घर पर रहने लगी थी, 'किमिच्छुक' दान देकर दोनों और अनाथ आदिको संतुष्ट किया, गंधर्वसेना की प्रतिज्ञानुसार उसका पति निश्चित करनेके लिये अनेक बार गंधर्वविद्याके जानकार बिद्वानों की सभाएँ जुटाई, प्रतिज्ञा पूरी होने पर वसुदेवके साथ उसका विवाह किया, और बराबर जैनधर्मका पालन करते हुए अन्त को जैन मुनि दीक्षा धारण की । इसके सिवाय, वसुदेवजीने चारुtant deosसनादि सहित सारा पूर्व वृत्तांत सुनकर और उससे सन्तुष्ट होकर चारुदत्तकी प्रशंसा में निम्न वाक्य कहेचारुदत्तस्य चोत्साहं तुष्टस्तुष्टाव यादवः ॥ १८१ अहोचेष्टितमार्यस्य महौदार्यसमन्वितम् ।
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हो पुण्यवलं गण्यमनन्यपुरुषोचितम् ॥ १८२ न हि पौरुषमीक्षं विना दैवबलं तथा । ईदृक्षान् विभवान् शक्याः प्राप्तुं ससुरखेचराः ॥ १८-३ ॥
- हरिवंशपुराण | भाषा में पं० गजाधरलाल जी ने इन्हीं प्रशंसावाक्यों को निम्न प्रकार से अनुवादित किया है
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“कुमार वसुदेवको परम श्रानंद हुआ उन्होंने चारुदतकी इस प्रकार प्रशंसा कर [को] कि आप उत्तम पुरुष हैं, आपकी चेष्टा धन्य है उदारता भी लोकोत्तर है अन्य पुरुषों के लिये
* यथाः - चारुदत्तः सुधोश्वापि भुक्त्वा भोगान्स्वपुण्यतः । समाराध्यजिनेंद्रोक्तं धर्मं शर्माकर चिरं ॥ ६२॥
ततो वैराग्यमासाद्य सुन्दर राख्यसुताय च ।
दत्वा श्रेष्ठपदं पूतं दीक्षां जैनेश्वरीं श्रितः ॥ ६३ ॥
- नेमिदत कथाकोश ।