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विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
रोहिणी के इस कृत्य पर कछ ईर्षाल, मानी और मदान्ध राजा, अपना अपमान समझकर, कपित हुए और रोहिणीके पिता तथा वसुदेव से लड़ने के लिये तैयार हो गये। उस समय विवाह नीति का उल्लंघन करने के लिये उद्यमी हुए उन कुषितानन राजाओं को सम्बोधन करके, वसुदेवजीने बड़ी तेजस्वित्ता के साथ जो वाक्य कहे थे उनमेसे स्वयंवर-विवाह के नियमसचक कुछ वाक्य इस प्रकार हैं :
कन्या वृणीते रुचितं स्ययंवरगता वरं । कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ।
-सग ११, श्लोक ७१ । अर्थात्-स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या उस घरको वरण (स्वीकार) करती है जो उसे पसन्द हाता है, चाहे वह वर कुलीन हो या अकुलीन । क्योंकि स्वयंवरमें इस प्रकारका-वरके कुलीन या अकुलीन होनेका--कोई नियम नहीं होता। ये वाक्य सकलकीर्सि श्राचार्य के शिष्य श्रीजिनदास ब्रह्मचारी ने अपने हरिवंशपराण में उद्धत किये हैं और श्रीजिनसेनाचार्य-कृत हरिवंशपुराणमें भी प्रायः इसी श्राशयके वाक्य पाये जाते हैं । वसुदेवजी के इन पचनों से उनकी उदार परिणति और नीतिज्ञनाका अच्छा परिचय मिलता है, और साथ ही स्वयंवर-विवाह की नीति का भी बहुत कुछ अनुभव हो जाता है । वह स्वयंवरविवाह, जिसमें वरक कुलीन या अकुलीन होने का कोई नियम नहीं हाता, वह विवाह है जिसे श्रादिपुराणमें 'सनातनमार्ग' लिखा है और सम्पूर्ण विवाह विधानों में सबसे अधिक श्रेष्ठ (वरिष्ठ) विधान प्रकट किया है। युगकी आदिमें सबसे पहले
. *यथा:-सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रतिस्मतिष भाषितः
. विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठो हि स्वयंघरः ॥४४.३२॥